22 वर्ष के उत्तराखंड में चुनौतियों की भरमार
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के इतिहास का वो दिन जब उत्तराखंड का जनम हुआ था यानि की एक लम्बे संघर्ष के बाद
पहाड़ी राज्य उत्तराखंड उत्तरप्रदेश से अलग हुआ था आज उत्तराखंड 22 साल का युवा राज्य हो चूका है
भारत के 27वें राज्य को पहले उत्तरांचल के रूप में जाना जाता था, वर्ष 2007 में इसका नाम
बदलकर उत्तराखंड किया गया 22 साल के सियासी सफ़र में काफी कुछ बदला काफी कुछ राज्य ने
हासिल भी किया मगर राज्य आज भी अधुरा सा लगता है बहुत कुछ अभी बाकी है जो राज्य को पूरा
करने के लिए नहीं मिल पाया है धरातल की बात करें तो राज्य बनने के बाद से लंबा वक्त गुजर जाने
के बाद भी कई गांव पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी सुविधाओं से वंचित हैं। ग्रामीण
बुनियादी सुविधाओं के अभाव में संघर्षपूर्ण जीवन जीने को मजबूर है और सबसे बड़ी बात जो राज्य
को अब अभी भी अधुरा बनाती है वो है राज्य में नए जिलो की आसआज भी युवा पीढ़ी जब अपने
बुजुर्गों से यह सवाल करती है कि उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी तो हमारे
बुजुर्ग यह जवाब देते हैं कि रोजगार पलायन नशाखोरी वन समस्या नौकरशाही की मनमानी शिक्षा
स्वास्थ्य जैसी समस्याओं का समाधान संभव हो सके उस वक्त पर राज्य बनाने में जुटे विद्वानों के
मन में यह था कि प्रत्येक राजनीति में प्रशासनिक व्यवस्था में उत्तराखंड की जनता के अनसुलझे
सवालों का उचित जवाब मिल जाए लेकिन राज्य गठन के 22 वर्ष बाद भी सबसे अहम मुद्दों पर
जनता के सवाल आज भी वैसे के वैसे ही रह गए हैं युवाओं को जब यह समझाया जाता है उत्तराखंड
राज्य को अलग क्यों किया गया था उनका अगला सवाल ही होता है क्या सच में राज्य ने वह सब
कुछ हासिल कर लिया है जिसलिए राज्य को अलग किया गया था।जिस राज्य को बनाने के लिए
लोगों ने एक लंबा संघर्ष लड़ा था आज उस प्रदेश की स्थाई राजधानी इन 22 सालों में नहीं मिल पाई
है और ना जाने आने वाले कितने सालों तक इस राज्य को उसकी स्थाई राजधानी नहीं मिल पाएगी
जिस वक्त पर राज्य के लिए संघर्ष किए गए थे उस वक्त पर उत्तराखंड क्रांति दल ने गैरसंद को प्रदेश
की राजधानी बनाने का संकल्प लिया था मगर आज स्थिति ऐसी है की राजधानी ना गैरसेंड बन सकी
और ना ही देहरादून को ही स्थाई राजधानी का दर्जा मिल पाया।पहाड़ों की सबसे बड़ी समस्या कहे
जाने वाले पलायन को भी इन 22 सालों में नहीं रोका जा सका है राज्य को अलग करने का मतलब
था की राज्य के लोगों को अपना प्रदेश छोड़कर अपना गांव अपना घर छोड़कर कहीं बाहर ना जाना पड़े
और अपने प्रदेश में ही रहकर काम काज कर सकें लेकिन राज्य अलग होने के बाद से अब तक
3200000 लोग पलायन कर चुके हैं।बात करे विकास की तो ढांचागत विकास तो अब तक बहुत हुआ
मगर इसमें भ्रष्टाचार व कमीशन खोरी भी बहुत हुई साथ ही उत्तराखंड में नौकरी मिलने का क्या हाल
रहा है वह किसी से छिपा नहीं है वहीं राज्य आंदोलनकारी कहते हैं कि रिजॉर्ट कल्चर ने उत्तराखंड की
मूल संस्कृति को खत्म करके रख दिया है अभी भी राज्य बनाने के सुनहरे सपने साकार नहीं हो पाए
हैंवही बात करें प्रदेश को नई जिले मिलने की उत्तराखंड बनने के बाद से ही छोटी-छोटी प्रशासनिक
इकाइयों के गठन की मांग उठती रही है लेकिन धरातल पर उसे अब तक पूरा नहीं किया जा सका है
आपको बता दें कि यूपी से अलग होकर उत्तराखंड बना तो 13 जिले शामिल किए गए थे वही विषम
परिस्थितियों वाले इस पहाड़ी राज्य में कई दूरदराज के इलाके जिला मुख्यालय से कई 100
किलोमीटर दूर है इन 22 सालों में नए जिलों के गठन की मांग उठी है लेकिन अभी तक एक भी
जिला बड़े नहीं सका है हालांकि सबसे पहले निशंक सरकार से लेकर हरीश रावत सरकार तक जिलों में
विकास और मूलभूत जरूरतों की अलग-अलग मांग की जिसके लिए बात प्रशासनिक ढांचा भी तैयार
हुआ मगर यह प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि कोई ना कोई बाधा आती गई और राज्य में जिलों की
बढ़ोतरी वाली समस्या हल ना हो सकी बहराल उत्तराखंड प्रदेश अप 22 साल का पूरा होकर 23 साल
में लग चुका है मगर देखते हैं कि कब तक यह राज्य अधूरा रहेगा जिस प्रदेश का सपना हमारे राज्य
आंदोलनकारियों ने देखा था वह सपना कब पूरा होगा।आंदोलनों और कुर्बानियों की नींव पर बना ये
राज्य अब तक अपने पैरों पर खड़े होने लायक नहीं है। हक की लड़ाई अब तक जारी है।
सियासत के खेल ऐसे निराले हैं लंबे जनांदोलन के बाद जन्मे उत्तराखंड ने 22 वर्ष पूरे कर
23वें में प्रवेश कर लिया है। उत्तराखंड युवा तो हो गया, लेकिन इसे स्वयं के पैरों पर खड़ा होने
में अभी वक्त लगेगा। पलायन, कमजोर आर्थिकी, बेरोजगारी, राजनीतिक अस्थिरता जैसी
चुनौतियां अब भी राज्य के समक्ष मुंह बाए खड़ी हैं। हां, इतना अवश्य है कि केंद्र और राज्य में
एक ही पार्टी की सरकार होने से पिछले लगभग साढ़े पांच वर्षों में उत्तराखंड में डबल इंजन का
असर नजर आया है। इस अवधि में एक लाख करोड़ से अधिक की विकास परियोजनाएं केंद्र से
राज्य को मिली हैं।नौ नवंबर, 2000 को उत्तराखंड देश के मानचित्र पर 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में
आया। 13 जिलों के छोटे से उत्तराखंड में 71 प्रतिशत से अधिक भूभाग पर वन क्षेत्र है। राज्य के नौ जिले
पूरी तरह पर्वतीय भूगोल के हैं, जबकि दो जिले पूर्ण मैदानी और दो मिश्रित भूगोल वाले। कुल मिलाकर
लगभग 80 प्रतिशत पर्वतीय भूभाग वाला राज्य है उत्तराखंड। अपनी स्थापना के आरंभिक 22 वर्षों में
उत्तराखंड में पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आया है।पिछले पांच वर्षों में पलायन रोकने के
लिए सरकार ने कुछ कदम बढ़ाए जरूर हैं, लेकिन यह भी सच है कि तस्वीर पूरी तरह बदलने में समय
लगेगा। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्र और राज्य के बाहर पलायन के तमाम कारण हैं। इनमें
मुख्यतया रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता शामिल हैं। पलायन करने वालों में
सबसे अधिक लगभग 50 प्रतिशत इसीलिए अन्यत्र गए, क्योंकि उन्हें आजीविका की तलाश थी।
इसके बाद 15 प्रतिशत पलायन शिक्षा के लिए हुआ, जबकि स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए पर्वतीय
क्षेत्र से पलायन के लिए लगभग नौ प्रतिशत लोग बाध्य हुए।आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अब
तक 3,946 गांवों के 1.18 लाख लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं, जबकि 6,338 गांवों
के 3.83 लाख व्यक्ति अस्थायी रूप से अन्यत्र गए हैं। उत्तराखंड में पलायन की दर 36.2
प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है। इस कारण राज्य के 1,702 गांव पूरी तरह वीरान
हो गए हैं। सरकार ने वर्ष 2018 में ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग का गठन किया। आयोग
ने राज्य में पलायन की स्थिति, कारणों के साथ ही समाधान के उपाय सुझाए हैं। इन पर
सरकार ने काम शुरू किया है, लेकिन इसका असर कुछ समय बाद सामने आएगा। अलग राज्य
बनने के बाद से अब तक 22 वर्षों में यहां अर्थव्यवस्था का आकार लगभग 18 गुना बड़ा हो
चुका है।राज्य स्थापना के पहले वर्ष में लगभग 14,500 करोड़ रुपये की अर्थव्यवस्था अब ढाई लाख
करोड़ रुपये के आकार की हो चुकी है। इसके बावजूद यह भी एक कड़वा सच है कि राज्य को
विकास और निर्माण कार्यों के लिए आय के संसाधन जुटाना किसी चुनौती से कम नहीं। राज्य
का कुल जितना बजट खर्च है, उसमें से एक-तिहाई यानी 33 प्रतिशत वेतन और पेंशन पर ही
चला जाता है। ऋण की स्थिति यह है कि यह कुल जीएसडीपी का 30 प्रतिशत हो चुका है। इस
स्थिति में राज्य आय के संसाधन बढ़ाने की चुनौती से जूझ रहा है। राज्य में जीएसटी, शराब,
खनन ही राजस्व के मुख्य स्रोत हैं। अब अन्य स्रोतों से भी धन जुटाने पर सरकार को ध्यान
केंद्रित करना होगा। यद्यपि वर्तमान धामी सरकार ने इसके लिए कसरत शुरू कर दी है। इसके
लिए बाकायदा कंसल्टेंट रखने की तैयारी है। बेरोजगारी उत्तराखंड की एक अन्य बड़ी समस्या के
रूप में उभर कर आई है। पलायन के कारणों में भी यही सबसे प्रमुख रहा है। वर्ष 2001 में
राज्य में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या 1.13 लाख थी, जो अब बढ़कर आठ लाख से अधिक हो
चुकी है।वर्तमान में उत्तराखंड की बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत है, जो कई अन्य राज्यों की अपेक्षा
बेहतर है। जन्म के बाद से ही उत्तराखंड राजनीतिक अस्थिरता से दो-चार होता रहा है। सत्ता में
चाहे कांग्रेस रही या भाजपा, अस्थिरता राज्य की एक स्थायी पहचान बन गई है। यहां अब तक
अंतरिम सरकार सहित कुल छह सरकारें रही हैं, लेकिन केवल नारायण दत्त तिवारी ही पांच वर्ष
का कार्यकाल पूर्ण करने वाले मुख्यमंत्री हैं। भाजपा को अब तक 12 वर्ष और कांग्रेस को 10 वर्ष
सरकार में रहने का अवसर मिला, लेकिन इतने कम समय में ही राज्य 12 मुख्यमंत्री देख चुका
है।राजनीतिक दलों का अंतर्कलह इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहा। अस्थिरता का एक
पहलू यह भी है कि उत्तराखंड भी दलबदल की राजनीतिक संस्कृति से स्वयं को अलग नहीं रख
पाया। हां, यह जरूर है कि राजनीति के अपराधीकरण से उत्तराखंड अब तक बचा हुआ है। तमाम
विपरीत परिस्थतियों से जूझने के बावजूद उत्तराखंड धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। इसमें डबल इंजन
की भूमिका को किसी भी दशा में नकारा नहीं जा सकता। फिर चाहे वह पहाड़ों में रेल पहुंचाने
के लिए ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल प्रोजेक्ट की बात हो, चारधाम आल वेदर रोड, हवाई व रोपवे
कनेक्टिविटी, दिल्ली-देहरादून आर्थिक गलियारा समेत अन्य योजनाएं, आने वाले दिनों में इसके
बेहतर परिणाम सामने आएंगे। इस सबके बीच उत्तराखंड अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा हो,
इसके लिए राज्य सरकार को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ कदम बढ़ाने होंगे। यह समय
की मांग भी है। अवस्थापना विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, ऊर्जा, उद्योग, मानव संसाधन, कानून
व्यवस्था के क्षेत्र में प्रदेश विकास की ऊंचाइयां भी छुई हैं। लेकिन पर्यावरणीय रूप से अति
संवेदनशील इस हिमालयी राज्य के सुदूर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में अवस्थापना, स्वास्थ्य,
कनेक्टिविटी, पलायन आदि समस्याओं को देखते हैं तो एकबारगी मन में सवाल उठना
स्वाभाविक है कि कहीं हमने विकास का गलत मॉडल तो नहीं अपना लिया। स्वास्थ्य और शिक्षा
के क्षेत्र में सुधार तो हुआ है। लेकिन पहाड़ और मैदान के बीच खाई काफी बड़ी है। राज्य के
मैदानी जिलों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हुआ। लेकिन पहाड़ में आज भी डाक्टरों और
विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी बनी हुई है। उत्तराखंड के साथ जुड़ी यह स्याह हकीकत रही है कि
यहां लगातार आपदाएं आती हैं। लेकिन राज्य बनने के बाद आपदाग्रस्त इलाकों में जो राहत
और बचाव का काम तुरंत हो सकता था वो आज तक नहीं हो रहा है। आपदा पीडि़तों को न
वक्त पर मदद मिलती और न मुआवजा।त्रासदी के जख्म अब तक नहीं भरे। ज्यादा चिंता की
बात ये है कि अलग राज्य में आपदा प्रबंधन की ठोस व्यवस्था अब तक हमारी सरकारें नहीं कर
पाई। 13 जिलों में 13 थीम आधारित डेस्टिनेशन जमीन पर नहीं उतर पाए। अल्मोड़ा जिले में
सूर्य मंदिर कटारमल, नैनीताल में मुक्तेश्वर, पौड़ी से सतपुली व खैरासैंण झील, देहरादून में
लाखामंडल, हरिद्वार में बावन शक्ति पीठ, उत्तरकाशी में हरकीदून व जखोल सर्किट, टिहरी में
टिहरी झील, रुद्रप्रयाग में चिरबटिया, ऊधमसिंहनगर में द्रोण सागर, चंपावत में पाटी देवीधुरा,
बागेश्वर में गरुड़ वैली, पिथौरागढ़ में मोस्टमानो व चमोली जिले में भराड़ीसैंण शामिल हैं।
देश का अग्रणी राज्य बनने के लिए उत्तराखंड को चुनौतियों का पर्वत लांघना होगा। शिखर
चूमने के लिए राज्य को चुनौतियों का पहाड़ लांघना होगा। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय
कार्यरत हैं।