भारत के पहले परमवीर च्रक विजेता का उत्तराखंड से नाता

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आज हम जब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो शौर्य की ये गाथाएं हमें नए सिरे से रोमांच और प्रेरणा से भर रही हैं। ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ पहले विद्रोह से लेकर मौजूदा दौर तक भारतीय सेना ने बहादुरी और सर्वस्व उत्सर्ग के कई यशस्वी सर्ग रचे हैं। स्वाधीन भारत में बलिदान की यह गाथा जिस अमर सैनिक के नाम से शुरू होती है, वे हैं मेजर सोमनाथ शर्मा। वे भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कमांडर थे। मेजर शर्मा का जन्म पंजाब के कांगड़ा (आज के हिमाचल प्रदेश) में 31 जनवरी 1923 को हुआ था.  उनके पिता अमरनाथ शर्मा खुद एक सेना के अफसर थे. नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में स्कूल शिक्षा के बाद मेजर शर्मा ने रॉयल मिलिट्री कॉलेज सैंडहार्ट में की थी. मेजर शर्मा को उनके दादा के दादा ने भागवत गीता के कृष्ण अर्जुन के प्रेरक प्रसंगों की शिक्षा दी थी जिससे वे जीवन भर प्रभावित रहे थे. मेजर शर्मा स्नातक की पढ़ाई के बाद ही सेना की 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट की 8वीं बटालियन में शामिल हो गए थे जो बाद में भारतीय सेना की कुमाउं रेजिमेंट की चौथी बटालियन कहलाई थी.  उन्होंने  ब्रिटिश इंडियन आर्मीकी ओर से दूसरे विश्वयुद्ध में भाग लिया था और बर्मा में जापानी सेना के खिलाफ मोर्चा संभाला था. 1947 में जब पाकिस्तान ने कबाइलियों के जरिए कश्मीर पर हमला बोला. तब 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना  ने अपनी एक टुकड़ी कश्मीर घाटी भेजी. मेजर शर्मा उस समय कुमाउं बटालियान की डी कंपनी में पदस्थ थे. जब उनकी कंपनी ने उन्हें कश्मीर में तैनात करने का आदेश जारि किया तब मेजर शर्मा के दाहिने हाथ में प्लास्टर चढ़ा था जो हॉकी खेलते समय चोट लगने की वजह से चढ़ा था. इन हालात में उन्हें यह सलाह दी गई कि वे इस ऑपरेशन से दूर रहें, लेकिन मेजर शर्मा ने जंग में जाने का फैसला लिया. इस तरह मेजर शर्मा 3 नवंबर को अपनी डी कंपनी के साथ बड़गाम पहुंच गए जहां तीन कंपनियों को उत्तर से आने वाले पाकिस्तानी सैनिकों को श्रीनगर पहुंचने से रोकने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. इस दौरान स्थानीय घरों से भी मेजर शर्मा की कंपनी के जवानों पर फायरिंग हुई. लेकिन मेजर शर्मा की टुकड़ी ने आम लोगों की खातिर जवाबी कार्रवाई नहीं करते हुए बचने का फैसला किया. इसी बीच 700 आतंकियों और पाकिस्तानी सैनिकों ने मेजर शर्मा की कंपनी पर हमला कर दिया जिससे कंपनी तीन ओर से दुश्मनों से घिर गई. उन पर मोर्टार से हमला भी किया गया.कुमाऊं रेजीमेंट की बहादुरी के किस्से जब-जब कहे जाएंगे उनमें मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम जरूर आएगा। उनके हौसले और जज्बे ने पाक घुसपैठियों (कबाइलियों) के नापाक इरादों को पस्त कर दिया था। तीन नवंबर 1947 को देर रात कश्मीर की एक ब्रिगेड के हेडक्वार्टर में चार कुमाऊं रेजीमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा का वायरलेस संदेश पहुंचा। दुश्मन हमसे केवल 50 गज दूर है, हम संख्या में बहुत कम हैं और भारी गोलाबारी में फंसे हैं। लेकिन इसी मौके पर मेजर शर्मा और उनकी टुकड़ी इस मौके पर पीछे नहीं हटी. वहीं मेजर शर्मा भी मुस्तैदी से डटे रहे. एक हाथ में प्लास्टर होने के साथ मेजर शर्मा ने खुद सैनिकों को भाग भाग कर हथियार और गोला बारूद देने का काम कर रहे थे. इसके बाद उन्होंने एक हाथ में लाइट मशीन गन भी थाम ली थी. इसी बीच एक मोर्टार के हमले से बड़ा विस्फोट हुआ जिसमें मेजर शर्मा बुरी तरह से घायल हो गए. शहीद होने से पहले उन्हें अपने संदेश दिया था- दुश्मन हमसे सिर्फ 50 गज की दूरी पर हैं. हमारी संख्या काफी कम है. हम भयानक हमले की जद में हैं. लेकिन हमने एक इंच जमीन नहीं छोड़ी है. हम अपने आखिरी सैनिक और आखिरी सांस तक लड़ेंगे.’ सात सौ के मुकाबले सौ सैनिकों के बाद भी मेजर शर्मा और उनकी टुकड़ी ने 200 आतंकियों और सैनिकों को ढेर कर उन्हें आगे बढ़ने नहीं दिया. इस मुठभेड़ में मेजर सोमनाथ शर्मा और जूनियर कमांडर के साथ 20 जवान शहीद हुए और उनके शव को उनकी पिस्तौल और उनके सीने से चिपकी भागवत गीता से पहचाना गया. इसके बाद 21 जून 1950 को उन्हें देश के पहले परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. इस प्रकार पूरा दिन मेजर सोमनाथ शर्मा तथा उनकी कंपनी के वीर सैनिकों ने दुश्मन को बडगाम में ही रोककर भारतीय सेना के और अधिक सैनिकों को हवाई मार्ग से शीघ्रातिशीघ्र श्रीनगर पहुंचने में सहायता की. अगर ऐसा नहीं हुआ होता और अगर हमलावर श्रीनगर हवाई अड्डे पर कब्जा कर लेते तो शायद आज पूरा श्रीनगर, बडगाम और बारामूला भी पाक-अधिकृत कश्मीर का हिस्सा होता. मेजर सोमनाथ शर्मा को मरोपरांत परम वीर चक्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वे यह सैनिक पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले सैनिक थे.मेजर सोमनाथ शर्मा की आज पुण्यतिथि है। 
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।