लोकपर्व ईगास पर उत्तराखंड में होती है बैलों की पूजा,मिनी ट्रेक्टर के दौर में बैलों की कम होती संख्या आगे ?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पर्वतीय इलाकों में इस पर्व पर बैलों की पूजा अर्चना करने के साथ ही उन्हें सजाया जाता
है।पलायन की मार, खेती में मिनी ट्रैक्टर के प्रयोग और बंजर भूमि के बढ़ते दायरे के बाद
बैलों की संख्या बेहद कम रह गई है। आलम यह है कि कई ग्राम पंचायतों बैल हैं ही नहीं।
2012 तथा 2019 में जारी पशुगणना के आंकड़ों से भी साफ है कि पहाड़ में बैल व बछड़ों
की संख्या में अत्यधिक गिरावट आ गई है।कुमाऊं के पर्वतीय गांवों में 90 के दशक के बाद तक
एक्यासी त्यार या धूमधाम से मनाया जाता रहा है। इस दिन सुबह से ही गांवों में बच्चे से लेकर हर
वर्ग के पशुप्रेमी बैलों को सजाने-संवारने की सामग्री का इंतजाम करने व उनके लिए खिचड़ी,
पूरी पकवान तैयार करने में जुट जाता हैं।पशुप्रेमी बैलों के लिए घंटी लाने, डोरी को रंगने,
भांग या भीमल के रेशे निकालकर उससे आकर्षक रंग में रंगते थे। स्थानीय भाषा में उसे
मुझयाड़ कहते हैं। जिसे बैल के सींग में बांधा जाता है। बैल या बछड़े को टीका लगाकर
उसकी पूजा अर्चना की जाती है। सींग से लेकर गले, जुड़ें से लेकर पूंछ तक सरसों का तेल
लगाया जाता है।राज्य में बैल व नर बछड़ों की संख्या तेजी से घट रही है, इसके बाद भी
बैलों को आवारा छोड़ने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। बाजारों, हाइवे समेत अन्य कस्बों में
आवारा छोड़े गए बैल व बछछ़े बड़ी मुसीबत बन रहे हैं जबकि गांवों में खेत जुताई के लिए
रखे बैल बेहद कम हो गए हैं।पशुपालन विभाग के निदेशक ने 2012 व 2019 की पशुगणना
का जिक्र करते हुए बताया कि 2012 में वयस्क क्रासब्रीड बैलों की संख्या करीब 28 हजार
थी जबकि 2019 में करीब 38 प्रतिशत घटकर 17 हजार रह गई। बद्री गाय या पहाड़ी नस्ल
की गाय से पैदा बैल 2012 में पांच लाख दस हजार जबकि 2019 में करीब 31 प्रतिशत
घटकर 356688 रह गए हैं।गढ़वाल मंडल में दो साल तक के नर गौवंश, प्रजनन एवं कृषि
कार्य व अन्य कार्यों के लिए पाले के गए स्वदेशी बैल गढ़वाल मंडल में 342273 हैं जबकि
कुमाऊं में यह संख्या 280854 है। 2019 की पशुगणना के आंकड़ों के अनुसार क्रास ब्रीड
किस्म के प्रजनन व कृषि कार्य, बैल गाड़ी, फार्म आदि के लिए पाले गए बैलों की संख्या
करीब 47 हजार है, इसमें डेढ़ साल तक के करीब 30 हजार हैं।स्वदेशी बैलों में दो साल तक
के करीब 76 हजार जबकि दो साल से अधिक आयु के चार लाख 32 हजार हैं। 2012 में
यह संख्या विदेशी में 80615, स्वदेशी छह लाख 24 हजार से अधिक थी। बैल पर्वतीय कृषि
के लिए सबसे उपयोगी जानवर है। यह बात अलग है कि मौसम एवं जंगली जानवरों की
मार के कारण लोगों का खेती से मोह भंग होता जा रहा है और इसी के साथ बैलों को
पालने का प्रचलन भी कम होता जा रहा है। फिर भी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में हरिबोधिनी
एकादशी के अवसर पर लोगों ने बैलों की पूजा कर चली आ रही परंपरा को जीवित रखने का
प्रयास किया। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में एकादशी के दिन बैलों का पूजन किया गया। उनके
सींगों में तेल लगाया गया। बैलों को माला पहनाई गई। शहर के आसपास के गांवा में भले
ही इस पर्व की परंपराएं विलुप्त सी हो गई हैं, लेकिन दूरदराज के क्षेत्रों में दीपावली के बाद
से ही इस पर्व की तैयारियां की जाती हैं। सरयू, पनार, महाकाली नदी घाटी क्षेत्रों में एकादशी
के दिन च्यूडे़ कूटने की परंपराएं हैं। बैल भगवान शंकर की सवारी है। बैल का आर्थिक दृष्टि
से भी बहुत महत्व है। यूं तो हमारे पहाड़ से बहुत कुछ पारंपरिक त्योहार और रीती-रिवाज
तथा तौर तरीके खत्म होते जा रहे हैं, लेकिन दीपावली जहां पूरे देश में उत्साह के साथ
मनाई जाती है, वहीं पहाड़ में भी इसका दशकों से चलन रहा है। गढ़वाल में अधिक मान्यता
छोटी दीपावली यानी “बग्वाल” की रहती थी, लेकिन अब वही “बग्वाल” मनाने वाले लोग
शहरों में आकर सिर्फ दीपावली को ही उत्तराखंड वासियों से आग्रह किया है कि वह अपने
राज्य की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के लिए ईगास (बूढ़ी दीपावली) का त्योहार अवश्य
मनाएं। उन्होंने ईगास पर घरों में दिए जलाने की भी अपील की।राज्य के पहाड़ में मनाए
जाने वाले इस पारंपरिक त्योहार को जन-जन के बीच दीपावली, होली व अन्य पर्वों की तरह
लोकप्रिय बनाने की मुहिम के तहतउत्तराखंड के प्रवासी अपनी विरासत और परंपरा के
संरक्षण के लिए आगे आएं। उत्तराखंड में भी कार्तिक पक्ष की कृष्णपक्ष में दीपावली मनाई जाती है
जिसे बग्वाल कहा जाता है. दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक पक्ष की एकादशी को बग्वाल मनाया
जाता है. एकादशी को गढ़वाल में इगास कहा जाता है इसलिए इसे इगास बग्वाल कहा जाता है. इगास
बग्वाल में संस्कृति की सुगंध को महसूस किया जा सकता है.उत्तराखंड से होने के नाते मैं यह आकांक्षा
चाहे जो भी हो, उत्तराखंड की लोक-संस्कृति और लोक परंपराओं हमारी अमुल्य धरोहर हैं. हम सभी का
कर्तव्य है कि इनके वैभव का परिचय हम आज की नयी पीढ़ी से करायें ताकि अपनी माटी और
संस्कृति की गंध उनके रूधिर में संचित होकर निरंतर जीवित रहे. लोक परंपराओं और संस्कृति को
बचाने के लिए हम सभी को एकजुट होना होगा। आपको इगास पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं है
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।