विस्थापन की ठोस नीति नहीं होने के कारण पीड़ित असमंजस की स्थिति

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

भूस्खलन एक गुरुत्व प्रेरित भूगर्भीय की घटना है। जो मुख्यतः पहाड़ों से जुड़ा हुआ है। चूंकि भूस्खलन की घटनाएं उन क्षेत्रों में भी हो सकती हैं। जहां भवनों, राजमार्गों और खुले मुंह वाली खदानों के लिए सतह की खुदाई जैसी गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है। अल्पावधि में अचानक और भारी वर्षा, जिसका स्वरूप अक्सर ऐसा होता है, के कारण हो सकता है। गहरे भूस्खलन के मामले में आमतौर पर गहरे विघटित चट्टान आधार सेंटर ग्रस्त हो जाता है। कुछ हुआ भू-स्खलन तेजी से होते हैं जो सेकंड में घटित हो जाते हैं। लेकिन कुछ भू-स्खलन को घटन में घंटे सप्ताह या उससे भी अधिक समय लग सकता है।
भूस्खलन एक प्राकृतिक आपदा है जो कम से कम 15% क्षेत्र को प्रभावित करता है। इसका क्षेत्र 4,90,000 वर्ग किमी से अधिक होता है। भू-स्खलन विभिन्न प्रकार का होता है। जैसे पूर्वोत्तर भारत, हिमालय और पश्चिमी घाटों तथा दक्षिणी घाटों में स्थित क्षेत्रों में होता रहता है। पूर्वोत्तर क्षेत्र में अराकान योगा श्रृंखलाओं से बना लगभग 0.098 मिलियन वर्ग किमी तथा नीलगिरी हिमालय, रांची पठार, पूर्वी तथा पश्चिमी घाटों के 0.392 मिलियन किमी क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित होते हैं।भूस्खलन के रूप में बड़ा पर्यावरणीय खतरा उत्पन्न हो सकता है. और ऐसे में वृक्षारोपण दीर्घकालीन समाधान साबित हो सकते हैं. लोकसभा में पेश गृह मंत्रालय से संबंधित आपदा प्रबंधन पर याचिका समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तराखंड में 1400 मेगावाट का विद्युत उत्पादन कर रही टिहरी परियोजना ने क्षेत्र में पौधारोपण कार्य पर ध्यान नहीं दिया है जिससे पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हुआ है.समिति ने गौर किया कि पर्वतों पर बार-बार होने वाले भूस्खलन को कम करने में वृक्षारोपण दीर्घकालीन समाधान साबित हो सकता है. समिति ने गृह मंत्रालय से सिफारिश की कि वह राज्य सरकारों को सलाह दे कि ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसमें स्थानीय लोगों को पौधारोपण कार्य कलापों में शामिल किया जा सके. साथ ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के कार्यकलापों को इसमें प्रभावी तरीके से शामिल करने की भी समिति ने सिफारिश की है.तमाम विशेषज्ञों की राय व गृह मंत्रालय से सम्बंधित आपदा प्रबंध पर याचिका समिति की रिपोर्ट में आवश्यक क़दमों को उठाने के निर्देशों के बाद भी राज्य सरकार निद्रा की मुद्रा में है. स्थानीय ग्रामीण जहां भय में जीने को विवश है वहीं पर्यावरणविद भी भविष्य को लेकर चिंतित है. इन सब के बाद भी सरकार की कानों में जूं तक नहीं रेंग रहीं हैं. तंत्र की इस तरह की गंभीर अनदेखी किसी बड़ी तबाही को निमंत्रण देने जैसा प्रतीत होता हैं दुनिया भर में भू-स्खलन के कारण होने वाले नुकसान के संबंध में चर्चा की जा रही है। और आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं। एक महत्वपूर्ण वजह यह भी है कि यहां आपदा पर्यावरण, समुदायों, पशुधन तथा जान मान का खतरा है। हिमालयी क्षेत्रों में भू-स्खलन की बढ़ती घटनाओं से राष्ट्रीय राजमार्गों की सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ गई है। राष्ट्रीय राजमार्गों को सुरक्षित करने का सुझाव देने के लिए केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने विशेषज्ञों की एक समिति के गठन का फैसला भी किया है। इसके साथ ही मंत्रालय एक विशेष भू-स्खलन प्रोजेक्ट शुरू करने की भी तैयारी में है। भू-स्खलन से राजमार्गो को सुरक्षित करने के लिए अलग से तीन से चार हजार करोड़ रुपए का प्रावधान भी किया गया है।वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि भू-स्खलन की घटनाओं का अध्ययन कर उससे बचने के लिए व तकनीकी उपाय से सुलझाने के लिए मंत्रालय ने डीआरडीओ के मातहत आने वाले डिफेंस जियो इनफॉर्मेटिक्स रिसर्च इस्टैब्लिसमेंट के साथ समझौता किया है। यह समझौता इसी साल 20 जनवरी को किया जा चुका है। भूस्खलन एक भूवैज्ञानिक घटना है। जो घरातली हलचलो जैसे पत्थर का खिसकना या गिरना, पथरीली मिट्टी का बहाव और भी इसके अंतर्गत आते हैं। कई प्रकार से भूस्खलन हो सकता है।और इसमें चट्टान की छोटी-छोटी पत्थरों के गिरने से लेकर बहुत अधिक मात्रा में चट्टान की टुकड़ी और मिट्टी का बहाव शामिल हो सकता है। इसका विस्तार कई किलोमीटर दूरी तक हो सकता है। भारी वर्षा, बाढ़ तथा भूकंप के आने से भूस्खलन हो सकता है। मानव गतिविधियां जैसे सड़क के किनारे खड़ी चट्टान के काटने, पेड़ और वनस्पति के हटाने या फिर पानी के पाइपों में रिसाव से भूस्खलन की घटना हो सकती है। जब तक नए वृक्षारोपण की तैयारी पूरी न हो चुकी हो तब तक पेड़ों की कटाई नहीं होनी चाहिए. चेतावनी के संकेत मौजूद होते हैं. बस उसे कम करने और उसके बेहतर प्रबंधन की जरूरत होती है जिसके लिए जोखिम वाले क्षेत्रों की पहचान, उनकी निगरानी और कुशल पूर्व चेतावनी तंत्र स्थापित करना होगा.”भूस्खलन के प्रबंधन के लिए सभी संबंधित पक्षों के बीच एक समन्वित और बहुआयामी नजरिए की जरूरत होती है जिसे चलाने के लिए आवश्यक जानकारी, कानूनी, संस्थागत व वित्तीय सहायता मुहैया कराकर बेहद कारगर बनाया जा सकता है. मालय पर एक के बाद एक जिस तरह विप्लव हो रहे हैं, उनके आलोक में पवित्र स्थलों की स्थिरता का विषय सुंदरता से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। केदारनाथ क्षेत्र में 22 सितम्बर से 2 अक्टूबर तक 3 बड़े एवलांच आने के बाद उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने केदारनाथ मंदिर को एवलांच से तो सुरक्षित पाया मगर साथ ही सरकार को अवगत कराया कि केदारनाथ धाम चोराबाड़ी और निकटवर्ती ग्लेशियरों से आए मोरेन या मलबे के आउटवॉश प्लेन पर स्थित है, जिस पर भारी निर्माण खतरनाक साबित हो सकता है।इसी आधार पर वाडिया हिमालयी भूगर्भ संस्थान, उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, भारतीय भूगर्भ विज्ञान सर्वेक्षण विभाग ने पूर्व में केदारनाथ में भारी निर्माण की मनाही की थी। लेकिन पुनर्निमाण के नाम पर वहां जितने भारी-भरकम निर्माण कार्य होने थे, वे पहले ही हो चुके हैं, और अब सौंदर्यीकरण और आवासीय उद्देश्य के निर्माण कार्य चल रहे हैं। प्रख्यात पर्यावरणविद् पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट का भी कहना है कि किसी भी स्थान की सुंदरता तो अच्छी लगती ही है, लेकिन सुंदरता से अधिक महत्त्वपूर्ण उस स्थल की स्थिरता है। अगर ये तीर्थ स्थल ही नहीं रहेंगे तो सुंदरता कहां रहेगी?चिपको नेता कहते हैं कि मौजूदा हालात में चारों ही धाम किसी न किसी कारण से सुरक्षित नहीं हैं। चारों हिमालयी धामों में से कहीं भी क्षेत्र विशेष की धारक क्षमता से अधिक मानवीय भार नहीं पड़ना चाहिए अन्यथा हमें जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित डॉ. पियूष रौतेला विशेषज्ञ समिति ने भी कुछ घटनाओं का उल्लेख करते हुए  एवलांच और भूस्खलन को सबसे अधिक चिंता का विषय बताया है। केदारनाथ की तरह ही विशेषज्ञों की राय के बिना बदरीनाथ का मास्टर प्लान भी बना। इससे पहले 1974 में बिड़ला ग्रुप के जयश्री ट्रस्ट द्वारा बदरीनाथ के जीर्णोद्धार का प्रयास किया गया था, लेकिन चिपको नेता चंडी प्रसाद भट्ट, गौरा देवी तथा ब्लॉक प्रमुख गोविन्द सिंह रावत आदि के विरोध के चलते उत्तर प्रदेश सरकार ने निर्माण कार्य रुकवा दिया था। बदरीनाथ एवलांच, भूस्खलन और भूकंप के खतरों की जद में है, और वहां लगभग हर 4 या 5 साल बाद एवलांच से भारी नुकसान होता रहता है। प्राचीनकाल में अनुभवी लोगों ने बदरीनाथ मंदिर का निर्माण ऐसी जगह पर किया जहां एयरबोर्न एवलांच सीधे मंदिर के ऊपर से निकल जाते हैं, और बाकी एवलांच अगल-बगल से सीधे अलकनंदा में गिर जाते हैं, इसलिए मंदिर तो काफी हद तक सुरक्षित माना जाता है, लेकिन 3 वर्ग किमी. में 85 हैक्टेयर में फैले बदरीधाम का ज्यादातर हिस्सा एवलांच और भूस्खसलन की दृष्टि से अति संवेदनशील है। वास्तव में जब तक वहां के चप्पे-चप्पे का भौगोलिक और भूगर्भीय अध्ययन नहीं किया जाता तब तक किसी भी तरह के मास्टर प्लान का कोई औचित्य नहीं है। बदरीनाथ के तप्तकुंडों के गर्म पानी के तापमान और वॉल्यूम का डाटा तैयार किए जाने की भी जरूरत है क्योंकि अनावश्यक छेड़छाड़ से पानी के स्रेत सूख जाने का खतरा बना रहता है। भागीरथी के उद्गम क्षेत्र में गंगोत्री मंदिर पर भैरोंझाप नाला खतरा बना हुआ है। इसरो द्वारा देश के चोटी के वैज्ञानिक संस्थानों की मदद से तैयार किए गए लैंड स्लाइड जोनेशन मैप के अनुसार गंगोत्री क्षेत्र में 97 वर्ग किमी. इलाका भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील है, जिसमें से 14 वर्ग किमी. का इलाका अति संवेदनशील है।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।