प्राचीनकाल में नदियों के किनारे ही हमारी मानव सभ्यताओं का जन्म व विकास हुआ, जीवनदायिनी नदियों पर गहराता संकट
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देवभूमि उत्तराखंड गंगा-यमुना जैसी नदियों का मायका है। दुर्भाग्य की बात यह है कि मायके में ही नदियों की दुर्दशा हो रही है। प्रदेश की सभी नदियों का हाल बुरा है। अधिकांश नदियों में नाले-परनाले और सीवर का गंदा पानी सीधे उड़ेला जा रहा है। कहीं-कहीं तो अवैध कब्जेदार नदियों की गर्दन ही मरोड़कर उसकी जमीन पर काबिज हो गए हैं। प्राचीनकाल में नदियों के किनारे ही हमारी मानव सभ्यताओं का जन्म व विकास हुआ था। नदियां केवल धरती के प्राण ही नहीं हैं बल्कि मानव संस्कृतियों की जननी भी हैं। हमारे पूर्वजों के मन में नदियों के प्रति अपार श्रद्धा व सम्मान का भाव विद्यमान था। वे नदियों को देवी-देवता मानकर उनकी पूजा किया करते थे। नदियों की महानता से प्रसन्न होकर ऐतिहासिक काल में कई महर्षियों ने नदी पुराण व ग्रंथों की रचना भी की हैं। उस समय नदियों के बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं मानी जाती थी। क्योंकि प्राचीनकाल में नदियों का केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व ही नहीं था बल्कि ये सामाजिक और आर्थिक महत्व को भी समेटे हुए थी। इन्हीं महत्वों को उजागार करने के लिए कई मेलों व त्योहारों का आयोजन भी नदियों को केंद्र में रखकर किया जाता था। प्राचीन समय में भारत अपनी कई महान नदियों के कारण विश्व विख्यात था। हमारी-आपकी जेब और घरों से निकला छोटा-बड़ा कूड़ा नदियों की कोख में जमा हो रहा है। वर्षभर हम जो कूड़ा-करकट, पर्यावरण के लिए घातक प्लास्टिक इधर-उधर फेंकते हैं, वह छोटे-छोटे गाड़-गदेरों, बरसाती नालों और छोटी नदियों से होते हुए बड़ी नदियों में समा जाता है।सेनेटरी पैड्स सहित प्लास्टिक की खाली बोतलें और यहां तक कि मृत पशुओं के अवशेष भी नदियों में बहाए जा रहे हैं। देशभर में जागरूकता के अभाव में पढ़े-लिखे लोग भी नदियों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। राज्य में सरकारी मशीनरी को भी नदियों के संरक्षण के प्रति जितनी गंभीरता से कार्य करना चाहिए, उतनी गंभीरता नहीं दिखाई देती है। इसका ज्वलंत उदाहरण है कि राज्य में चल रही बड़ी सड़क परियोजनाओं में सड़क निर्माण के दौरान पहाड़ों के कटान से निकला मलबा चिन्हित डंपिंग जोन में न डालकर सीधे नदियों में ही डाला जा रहा है। यही गाद के रूप में नदी तल में जमा होकर बाढ़ और आपदाओं को जन्म देता है। इससे जलीय जीवों के जीवन के साथ ही नदियों के अस्तित्व को भी खतरा पैदा हो रहा है। सरकार ने बीते वर्ष राज्य में 13 नदियों के पुनर्जीवन की घोषणा की थी। इनमें कुछ नदियों के संरक्षण की दिशा में प्रयास भी शुरू किए गए हैं। देहरादून की ऋषिपर्णा (रिस्पना) और बिंदाल नदी इनमें प्रमुख हैं। राज्य में प्रवाहित होने वाली नदियों की बात करें, जिनका उद्गम राज्य का हिमालयी क्षेत्र है तो कुल डेढ़ दर्जन प्रमुख नदियां यहां से निकली हैं। इनकी कुल लंबाई 2358 किमी है। लेकिन यह नदियां भी लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। जबकि एक दर्जन से अधिक सहयोगी नदियां विभिन्न कारणों से अपना अस्तित्व खो चुकी हैं या लुप्तप्राय: होने की कगार पर हैं नदियों के विलुप्त होने का कारण प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय छेड़छाड़ है। हम जितना नदियों से दूर रहेंगे, नदियां उतनी ही निर्मल और अविरल होंगी। ऋग्वेद में जिन 21 नदियों का उल्लेख है, वे सभी भारत की पुरातन संस्कृति का हिस्सा हैं। हालांकि केंद्र सरकार सहित कई सामाजिक संगठन नदियों के संरक्षण की दिशा में कार्य कर रहे हैं, लेकिन हमें नदियों के संरक्षण संवर्धन की दिशा में और अधिक गंभीरता से कार्य करने के प्रयास करने होंगे। हमारी नदियां केवल नदी मात्र नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक विरासत की संवाहिकाएं हैं। लेकिन नदियों के लगातार दोहन से इनकी निर्मलता और अविरलता प्रभावित हो रही है। नदी तट पर विकसित हुई आधुनिक मानव सभ्यता हमारी नदियों के पर्यावरण को प्रभावित कर रही है। जो वर्तमान ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी अच्छा नहीं है। भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में नदी सभ्यता को शामिल किया गया है। उम्मीद है आने वाली पीढ़ियां इससे नदियों के संरक्षण की दिशा में काम करने को बल मिलेगा। रिस्पना की इस हालत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मन की बात में भी रिस्पना नदी की दुर्दशा का मुद्दा उठ चुका है। मन की बात के 50वें एपिसोड में मार्च 2017 को प्रधानमंत्री ने गायत्री की एक मैसेज का जिक्र किया था। इसमें गायत्री ने कहा था कि पूरे साल बहने वाली रिस्पना अब डंपिंग ग्राउंड बन गई है। प्रधानमंत्री ने कहा था कि गंदगी के प्रति यह गुस्सा अच्छा है। स्वच्छ भारत मिशन को इसी तरह के गुस्से से सफलता मिलेगी। इस प्रकरण के कुछ समय तक रिस्पना में कई बार अधिकारी पहुंचे। कुछ योजनाएं भी बनी, लेकिन रिस्पना की हालत सुधर नहीं पाई। रिस्पना और बिंदाल की पुरानी स्थिति को याद करते हुए कहते हैं। रिस्पना साफ पानी की नदी थी। रिस्पना पर पुल नहीं था, कॉजवे था। बरसात में वाहन नहीं आ पाते तो गोरखपुर गांव के लोग झोटा बुग्गी से लोगों को आर-पार करवाते थे। नदी के किनारे घनी झाडिय़ां होती थी। चूना भट्टा के पास जरूर रिस्पना की स्थिति खराब लगती थी, क्योंकि यहां हर समय भट्टियों के गंध समाई रहती थी। साफ सुथरी बजरी छनती थी। रिस्पना के बारीघाट के बजरी सबसे अच्छी और महंगी मानी जाती थी, इसमें चूने का लेप होता था। रिस्पना और बिंदाल चौड़े पाटों वाली नदियां थी। 1990 के बाद के बाद दोनों नदियों का गंदलाते और इसके पाट संकरे होते महसूस किये। 2000 के बाद यह सिलसिला बढ़ गया और अब स्थिति सामने है।लगभग सभी नदियों का पानी प्रदूषित हो चुका है। नदी का पानी ना पीने लायक बचा है और ना ही नहाने लायक बचा है। नदियों के किनारों का अतिक्रमण, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, रेत का अंधाधुंध उत्खनन होने के कारण तथा बड़े पैमाने पर जंगल कटाई के चलते नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है देश की नदियों का जल स्वच्छ हो जाएगा? हमारे लिए नदी प्रबंधन का सिद्धांत यह होना चाहिए कि नदी को कोई खराब ही नहीं करें। यदि ऐसा होगा तो नदी को स्वच्छ करने के नाम पर करोड़ों का धन व्यय करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। नदियों में जैव विविधता लौटाने के लिए नदियों के पानी में जैव आॅक्सीजन की मांग घटानी होगी ताकि नदियों को साफ करने वाले जलीय जीव जिंदा रह सकें। नदियों में औषधीय गुण फिर आएं इसके लिए किनारों पर औषधीय पेड़ रोपित किये जाएं। इसके अतिरिक्त खेती और घरों में डिटर्जेंट आदि में इस्तेमाल हो रहे खतरनाक रसायन और कीटनाशक से नदियों को बचाना होगा। अस्तित्व के लिए जूझ रही नदियों को जीवित नदी का दर्जा देने से अधिक जरूरी है उन्हें जीवित रखना। यह काम केवल खानापूर्ति से नहीं होगा बल्कि इसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति व ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।